दोहरा ॥
महा काल की सरनि जे परे सु लए बचाइ ॥
और न उपजा दूसर जग भछियो सभै बनाइ ॥३६६॥
जो पूजा असिकेतु की नित प्रति करै बनाइ ॥
तिन पर अपनो हाथ दै असिधुज लेत बचाइ ॥३६७॥
चौपई ॥
दुसट दैत कछु बात न जानी ॥
महा काल तन पुनि रिसि ठानी ॥
बल अपबल अपनो न बिचारा ॥
गरब ठानि जिय बहुरि हंकारा ॥३६८॥
रे रे काल फूलि जिनि जाहु ॥
बहुरि आनि संग्राम मचाहु ॥
एक निदान करो रन माही ॥
कै असिधुजि कै दानव नाही ॥३६९॥
एक पाव तजि जुध न भाजा ॥
महाराज दैतन का राजा ॥
आँतौ गीध गगन लै गए ॥
बाहत बिसिख तऊ हठ भए ॥३७०॥
असुर अमित रन बान चलाए ॥
निरखि खड़गधुज काटि गिराए ॥
बीस सहस्र असुर पर बाना ॥
स्री असिधुज छाडे बिधि नाना ॥३७१॥
महा काल पुनि जिय मै कोपा ॥
धनुख टंकोर बहुरि रन रोपा ॥
एक बान ते धुजहि गिरायो ॥
दुतिय सत्रु को सीस उडायो ॥३७२॥
दुहूँ बिसिख करि द्वै रथ चक्र ॥
काटि दए छिन इक मै बक्र ॥
चारहि बान चार हूँ बाजा ॥
मार दए सभ जग के राजा ॥३७३॥
बहुरि असुर का काटसि माथा ॥
स्री असिकेति जगत के नाथा ॥
दुतिय बान सौ दोऊ अरि कर ॥
काटि दयो असिधुज नर नाहर ॥३७४॥
पुनि राछस का काटा सीसा ॥
स्री असिकेतु जगत के ईसा ॥
पुहपन बृसटि गगन ते भई ॥
सभहिन आनि बधाई दई ॥३७५॥
धंन्य धंन्य लोगन के राजा ॥
दुसटन दाह गरीब निवाजा ॥
अखल भवन के सिरजनहारे ॥
दास जानि मुहि लेहु उबारे ॥३७६॥
ੴ स्री वाहिगुरू जी की फतह ॥
पातिशाही १० ॥
कबियो बाच बेनती ॥
चौपई ॥
हमरी करो हाथ दै रच्छा ॥
पूरन होइ चित की इच्छा ॥
तव चरनन मन रहै हमारा ॥
अपना जान करो प्रतिपारा ॥३७७॥
हमरे दुसट सभै तुम घावहु ॥
आपु हाथ दै मोहि बचावहु ॥
सुखी बसै मोरो परिवारा ॥
सेवक सिक्ख सभै करतारा ॥३७८॥
मो रच्छा निज कर दै करियै ॥
सभ बैरन को आज संघरियै ॥
पूरन होइ हमारी आसा ॥
तोर भजन की रहै पिआसा ॥३७९॥
तुमहि छाडि कोई अवर न धियाऊं ॥
जो बर चहों सु तुम ते पाऊं ॥
सेवक सिक्ख हमारे तारीअहि ॥
चुनि चुनि सत्र हमारे मारीअहि ॥३८०॥
आप हाथ दै मुझै उबरियै ॥
मरन काल का त्रास निवरियै ॥
हूजो सदा हमारे पच्छा ॥
स्री असिधुज जू करियहु रच्छा ॥३८१॥
राखि लेहु मुहि राखनहारे ॥
साहिब संत सहाइ पियारे ॥
दीन बंधु दुसटन के हंता ॥
तुम हो पुरी चतुर दस कंता ॥३८२॥
काल पाइ ब्रहमा बपु धरा ॥
काल पाइ सिवजू अवतरा ॥
काल पाइ कर बिसनु प्रकासा ॥
सकल काल का कीआ तमासा ॥३८३॥
जवन काल जोगी सिव कीओ ॥
बेद राज ब्रहमा जू थीओ ॥
जवन काल सभ लोक सवारा ॥
नमसकार है ताहि हमारा ॥३८४॥
जवन काल सभ जगत बनायो ॥
देव दैत जच्छन उपजायो ॥
आदि अंति एकै अवतारा ॥
सोई गुरू समझियहु हमारा ॥३८५॥
नमसकार तिस ही को हमारी ॥
सकल प्रजा जिन आप सवारी ॥
सिवकन को सिवगुन सुख दीओ ॥
सत्््रुन को पल मो बध कीओ ॥३८६॥
घट घट के अंतर की जानत ॥
भले बुरे की पीर पछानत ॥
चीटी ते कुँचर असथूला ॥
सभ पर कृपा दृसटि कर फूला ॥३८७॥
संतन दुख पाए ते दुखी ॥
सुख पाए साधुन के सुखी ॥
एक एक की पीर पछानैं ॥
घट घट के पट पट की जानैं ॥३८८॥
जब उदकरख करा करतारा ॥
प्रजा धरत तब देह अपारा ॥
जब आकरख करत हो कबहूँ ॥
तुम मै मिलत देह धर सभहूँ ॥३८९॥
जेते बदन सृसटि सभ धारै ॥
आपु आपनी बूझ उचारै ॥
तुम सभही ते रहत निरालम ॥
जानत बेद भेद अर आलम ॥३९०॥
निरंकार नृबिकार निरलंभ ॥
आदि अनील अनादि असंभ ॥
ताका मूड़्ह उचारत भेदा ॥
जा को भेव न पावत बेदा ॥३९१॥
ता को करि पाहन अनुमानत ॥
महा मूड़्ह कछु भेद न जानत ॥
महादेव को कहत सदा सिव ॥
निरंकार का चीनत नहि भिव ॥३९२॥
आपु आपनी बुधि है जेती ॥
बरनत भिंन भिंन तुहि तेती ॥
तुमरा लखा न जाइ पसारा ॥
किह बिधि सजा प्रथम संसारा ॥३९३॥
एकै रूप अनूप सरूपा ॥
रंक भयो राव कही भूपा ॥
अंडज जेरज सेतज कीनी ॥
उतभुज खानि बहुर रचि दीनी ॥३९४॥
कहूँ फूल राजा ह्वै बैठा ॥
कहूँ सिमटि भि्यो संकर इकैठा ॥
सगरी सृसटि दिखाइ अचंभव ॥
आदि जुगादि सरूप सुयंभव ॥३९५॥
अब रच्छा मेरी तुम करो ॥
सिक्ख उबारि असिक्ख संघरो ॥
दुशट जिते उठवत उतपाता ॥
सकल मलेछ करो रण घाता ॥३९६॥
जे असिधुज तव सरनी परे ॥
तिन के दुशट दुखित ह्वै मरे ॥
पुरख जवन पग परे तिहारे ॥
तिन के तुम संकट सभ टारे ॥३९७॥
जो कलि को इक बार धिऐ है ॥
ता के काल निकटि नहि ऐहै ॥
रच्छा होइ ताहि सभ काला ॥
दुसट अरिसट टरें ततकाला ॥३९८॥
कृपा दृसटि तन जाहि निहरिहो ॥
ताके ताप तनक मो हरिहो ॥
रिद्धि सिद्धि घर मो सभ होई ॥
दुशट छाह छ्वै सकै न कोई ॥३९९॥
एक बार जिन तुमै संभारा ॥
काल फास ते ताहि उबारा ॥
जिन नर नाम तिहारो कहा ॥
दारिद दुसट दोख ते रहा ॥४००॥
खड़ग केत मै सरणि तिहारी ॥
आप हाथ दै लेहु उबारी ॥
सरब ठौर मो होहु सहाई ॥
दुसट दोख ते लेहु बचाई ॥४०१॥
कृपा करी हम पर जगमाता ॥
ग्रंथ करा पूरन सुभराता ॥
किलबिख सकल देह को हरता ॥
दुसट दोखियन को छै करता ॥४०२॥
स्री असिधुज जब भए दयाला ॥
पूरन करा ग्रंथ ततकाला ॥
मन बाछत फल पावै सोई ॥
दूख न तिसै बिआपत कोई ॥४०३॥
अड़िल ॥
सुनै गुँग जो याहि सु रसना पावई ॥
सुनै मूड़ चित लाइ चतुरता आवई ॥
दूख दरद भौ निकट न तिन नर के रहै ॥
हो जो या की एक बार चौपई को कहै ॥४०४॥
चौपई ॥
संबत सत्रह सहस भणिजै ॥
अरध सहस फुनि तीनि कहिजै ॥
भाद्रव सुदी असटमी रवि वारा ॥
तीर सतुद्रव ग्रंथ सुधारा ॥४०५॥
इति स्री चरित्र पख्याने तृया चरित्रे मंत्री भूप संबादे चार सौ पाँच चरित्र समापतम सतु सुभम सतु ॥४०५॥७५५८॥ अफजंू ॥
स्वैया ॥
पाइ गहे जब ते तुमरे तब ते कोऊ आँख तरे नही आनयो ॥
राम रहीम पुरान कुरान अनेक कहैं मत एक न मानयो ॥
सिंमृति सासत्र बेद सभै बहु भेद कहै हम एक न जानयो ॥
स्री असिपान कृपा तुमरी करि मै न कहयो सभ तोहि बखानयो ॥८६३॥
दोहरा ॥
सगल दुआर कउ छाडि कै गहयो तुहारो दुआर ॥
बाहि गहे की लाज असि गोबिंद दास तुहार ॥८६४॥